सिदेश्वर संत श्री गुलाब बाबा की जय

Brief Biography of Vandniya GulabBaba ji

वंदनीय गुलाबबाबा जी की संक्षिप्त जीवनी


भारतीय संस्कृती मे प्राचीन काल से साधू संतो कों साक्षात् पृथ्वितल के भगवान माना गया है। ये भी माना गया है की नदी का मूल और ऋषि का कूल पूछना नही चाहिए। इसके पिछे शायद ये धारणा होगी कि साधू संत तो अपने परिवार और कूल को त्याग कर अखिल मानव परिवार के हो गये हैं। तो किस परिवार में वे जन्मे उसका विचार करने से क्या फायदा? लेकिन ये तो रहा महानुभावों का उच्च विचार । अगर सामान्य भक्तजनों का विचार किया जाए तो उन्हे संतजनों के जीवनचरित्र में स्वाभाविक ही रस होता है। इतनी ही नहीं.... संतजनों के चरित्र उन्हें प्रेरित करते हैं..... ईश्वर के प्रति उनकी श्रद्धा दृढ करते हैं । जीवन की आपदाओं पर जीत हासील करने का हौसला देते हैं। अभिलाषा और मोहमाया को टाल कर भवसागर पार करने में सहायता प्रदान करते हैं। इसी हेतू को ध्यान में रख तथा लाखों भक्तों के आग्रह का सम्मान करते हुए यहाँ परमपूज्य श्री गुलाबबाबाजी के अवतारकार्य का बखान करने जा रहा हूँ। साक्षात् ईश्वर की लीलाओं का वर्णन करने की योग्यता तो मुझ में नहीं । लकिन प. पू. बाबा जी की कृपा के योग से भक्तजन इस कमी को भी स्वीकार करेंगे ये विश्वास हैं।

महाराष्ट्र के अमरावती जिले में अंजनगांव (सुर्जी) नामक एक तहसील हैं । यही अंजनगांव पू. गुलाबबाबा जी की मातोश्री का मैहर भी था। इसी अंजनगांव तहसील में टाकरखेडा (मोरे) नामक एक छोटासा देहात है। इसी गांव को पू. गुलाबबाबा जी की पावन जन्मस्थली होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी अर्थात 30 जून 1932 इस मंगलमय दिन रात्री के बारह बजे पू. बाबा जी का जन्म हुआ। जिस तरह भगवान श्री कृष्ण का जन्म बंदिशाला मे... एक छोटीसी जगह में... मध्यरात्री को हुआ था उसी तरह कलियुगकालीन कृष्णरूपी बाबाजी का जन्म भी मिट्टी और घासफूस के बने एक छोटसे झोपड़े में रात बारह बजे हुआ। घर में उस वक्त तेल का एक दिया भी न था मगर उस वक्त दाई का काम करने वाली भागाबाई और उनकी कन्या बनाबाई इस बात की साक्ष देती हैं कि जिस क्षण बाबाजी ने इस पृथ्वीतल पर प्रवेश किया उस समय वह छोटी सी झोपडी एक अलौकिक प्रकाश से झगमगा उठी । परावर्ति काल में पू. बाबाजी के ज्ञान - प्रकाश से ये भूलोक झगमगा जाने वाला है इस तथ्य का वह घटना दृष्टांत दे रही थी।

काशीखंड में गासी, माली, उमक, वंशवृक्ष का उल्लेख है। श्री. राणोजी उमक इस घराने के मूल पुरूष माने जाते है। उनके सुपुत्र श्री. कृष्णाजी उमक उपजीविका की खोज में घुमक्कडी करते हुए काशीक्षेत्र से टाकरखेडी में दाखिल हुए और यहीं पर उन्होंने वास्तव्य किया। श्री. कृष्णाजी के सुपुत्र श्री. माणजी उमक श्री माणजी के पुत्र श्री. जागोजी उमक थे। श्री. जागोजी को तीन पुत्र और तीन कन्याएँ हुई। इन में से द्वितीय पुत्र श्री. सीताराम जी उमक पू. बाबाजी के पिता हुए। श्री. सीतारामजी का ध्यान बचपन से ही ऐहिक सुखों की अपेक्षा भगवद्भक्ति की ओर अधिक था। छोटी उमर से ही उन्हें भजन और कीर्तन की रूचि पैदा हो गयी । यथाकाल उनका विवाह अंजनगांव के श्री. रामजी फुलारे इनकी कन्या तान्हाबाई से संपन्न हुआ। तान्हाबाई की मातोश्री भी धार्मिक वृत्ती की थी। इस प्रकार इस दांपत्य में भगवद्भक्ती और धार्मिक गुणों के सारे उच्च संस्कार समा गए थे।

यद्यपि श्री. सीतारामजी पढ़ लिख नहीं सकते थे परंतु उन्हे भक्ति-साहित्य के प्रति बड़ा रूझान था । अपने माता पिता तथा अन्य स्त्रोतों से उन्होने केवल श्रवण करके कई भजन ...कीर्तन और भारूड मुखोद्गत किए थे। ढोलक और टाल की सहाय्यता से अत्यंत सुश्राव भजन और कीर्तन करने के लिए वे टाकरखेड की पंचक्रोशी में सुविख्यात थे। श्री. सीतारामजी और तान्हाबाई को कुल पांच पुत्र और दो कन्याएँ प्राप्त हुई। प्रथम पुत्र यशवंतराव... द्वितीय पुत्र नारायणराव... तृतीय पुत्र संत श्री गुलाबबाबाजी ...चतुर्थ पुत्र रामराव एवम् सबसे कनिष्ठ भीमराव तथा नर्मदाबाई और द्रौपदाबाई ये कन्याएँ ऐसा बड परिवार था । इन में से श्रीमती द्रौपदाबाई का विवाह के कुछ ही दिन उपरांत देहावसान हो गया । श्रीमती नर्मदाबाई आज भी पू. गुलाबबाबाजी के समाधिमंदिर में सेवारत हैं।

ये घटना पू गुलाबबाबाजी के जन्मसमय की है। श्री. गंगारामजी पवार इनके घर में 'श्री हरिविजय' का पारायण चल रहा था। जिस तरह श्रीराम जन्म के समय कौशल्या जी को हाथ में धनुष लेकर दुष्टों का संहार करने की इच्छा हो रही थी... उसी प्रकार श्री गुलाबबाबाजी के जन्म के समय तान्हाबाई को 'श्री हरिविजय' पारायण की इच्छा हो रही थी। वे गर्भावस्था में होने के बावजूद एक भी दिन 'श्री हरिविजय' का श्रवण चूकने नहीं देती थी। और फिर आज तो श्रीकृष्णजन्म का अध्याय शुरू होने वाला था । बडे भक्तिभाव से और तल्लीन होकर वे कृष्णजन्म का आख्यान सुन रही थी। श्री. किसनराव वाघोते अपने सुस्वर में श्लोकों का वाचन कर रहे थे तो पुंडलिक जी महाराज उन श्लोकों का भावर्थ श्रोतोओं को समझा रहे थे। सारे ही श्रोतागण बड़ी ही तन्मयता से आख्यान में मग्न थे कि यकायक तान्हाबाई को प्रसववेदना शुरू हो गयी। श्री सीताराम जी फौरन उन्हें घर ले गये । रास्ते में ही उन्होंने दाई भागाबाई और उनकी कन्या बनाबाई को इस बात की कल्पना दी और प्रसूती का सारा सामान लेकर घर पहुँचने को कहा। ठीक मध्यरात्री को श्री गुलाबबाबाजी का जन्म हुआ और वह छोटीसी झोंपडी एक पवित्र प्रकाश से तेजोमय हो गयी। श्री सीतारामजी ने अपने बेटे को देखा

और सहसा उनके मुख से शब्द निकल पडे 'ये तो बडा ही तेजस्वी बालक है। ये ज्यादा दिन हमारे घर में नहीं रहेगा।"

अर्थात... परोपकार के लिए अपने देह को कष्ट देनेवाले संत विभूतिओं का जन्म तो अखिल संसार के कल्याण के लिए ही होता है। उन्हे स्वार्थ की चार दीवार कब तक अपने साथ रोक सकती है?